मथुरा के सेठ ने दो बार ताजमहल खरीदा

एक अनोखी कहानी जो ताजमहल के इतिहास और उसके अंग्रेजी शासन काल के दौरान बिक्री की कोशिशों को उजागर करती है। जानिए कैसे लार्ड विलियम बेंटिक ने ताजमहल को बेचने की योजना बनाई और मथुरा के सेठ लख्मी चंद ने इसे खरीदा, लेकिन जनता के विरोध ने इसे असंभव बना दिया। इस इतिहासिक घटनाक्रम की गहराई

मथुरा के सेठ ने दो बार ताजमहल खरीदा
मथुरा के सेठ ने दो बार ताजमहल खरीदा

बुरी नजर से देखने और आलोचना करने का रिवाज नया नहीं, बल्कि अंग्रेजी हुकूमत ने इसे नेस्तनाबूत कर दौलत कमाने के सपने देखे थे। इस लाजवाब इमारत को निहारने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों को नहीं मालूम कि अंग्रेजों ने इसे दो बार बेचने की कोशिश की थी। कवियों की कल्पना को मात देने वाले ताजमहल को मथुरा के सेठ लख्मी चंद ने दोनों बार खरीद तो लिया, लेकिन जनता के विरोध के कारण वह कब्जा न ले सके। सेठ लख्मी चंद ने ताजमहल को पहले डेढ़ लाख रुपए में और दूसरी बार 7 लाख रुपए में खरीदा। यह बात सन् 1831 की है।

इतिहासकारों के अनुसार मुगल बादशाह शाहजहां ने ताजमहल को सन 1632 में बनवाना शुरू किया तो 21 साल तक 25 हजार मजदूर उस जमाने के जाने माने पेंटर और कलाकारों के साथ रात-दिन इसके निर्माण में जुटे रहे। आज ताजमहल के आसपास की बस्तियों में जो बाशिंदे हैं, वे ताजमहल को बनाने वाले मजदूरों के वंशज ही हैं।

अंग्रेजों के जमाने में चाय की प्याली में एक तूफान गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिक की हरकतों से आया था। लार्ड विलियम बेंटिक हिन्दुस्तान में सिर्फ दो साल 1833 से 1835 तक रहा। उसको मुगलिया इमारतों में कोई कलात्मकता जैसी चीज नजर ही नहीं आती थी।

हाँ, इमारतों में जड़ी कीमती वस्तुओं पर उनकी बुरी नजर जरूर रहती थी। लार्ड विलियम बेंटिक ने कीमती पत्थरों को इंग्लैंड ले जाने की योजना बनाई। उसने अपने खास मथुरा के सेठ लख्मी चंद को मात्र डेढ़ लाख रुपये में ताजमहल की मिल्कियत सौंप दी। अंग्रेज परस्त सेठजी बड़ी शान-शौकत से जब ताजमहल पर कब्जा लेने आगरा गए तो ताजमहल के आसपास रहने वाले बाशिदों ने इसका जबरदस्त विरोध किया और सेठजी को बैरंग लौटा दिया। दरअसल, विरोध करने वाले लोग वे ही लोग थे, जिनके पूवर्जी ने इसके निर्माण में रात-दिन लगाए थे। लार्ड विलियम बेंटिक आहत जरूर हुया, लेकिन उसने ताजमहल बेचने के मंसूबों को अपने सीने में दबाये रखा। बेंटिक ने अपनी योजना को नया रूप देते हुए कलकत्ता के एक अखबार में ताजमहल की नीलामी का विज्ञापन प्रकाशित कराया और 26 जुलाई 1831 नीलामी की तारीख तय की।

इतिहासकार आर. रामनाथ और अंग्रेजी लेखक एच. जी. केन्स के मुताबिक तय तारीख पर बोली लगाने के लिए मथुरा और राजस्थान के कई सेठ आगे आये, लेकिन मथुरा के सेठ लख्मी चंद की सात लाख की बोली सबसे ऊपर रही। लार्ड विलियम बेंटिक को यह रकम बहुत कम लगी। अतः यह बोली निरस्त कर दी गई और ताजमहल इस बार भी न बिक सका।

जिद्दी लार्ड विलियम बेंटिक ने ताजमहल की बिक्री की योजना को यहीं विराम नहीं दिया और अपने परिचित हिंदुस्तानी सेठ, साहूकारों से इस बाबत बातचीत करता रहा, ताकि ताजमहल की ज्यादा से ज्यादा कीमत वसूली जा सके। मजेदार बात यह है कि इतिहास में बेजुबान ताजमहल को नेस्तनाबूत करने वाले हमेशा रहे हैं, तो इसके रक्षकों की भी कमी नहीं रही। ताजमहल को बेचने के लार्ड विलियम बेंटिक के मंसूबों की खबर किसी तरह इंग्लैंड की पालिर्यामेंट तक पहुँच गई। इतिहास में लन्दन तक खबर पहुँचाने वाले का नाम अज्ञात है। लंदन की संसद ने बेंटिक की इस योजना को 'मूखर्तापूर्ण योजना' करार कर ऐसा न करने की हिदायत लार्ड विलियम बेंटिक को दी।

इसके बाद 7 फरवरी 1900 को लार्ड कर्जन ने ताजमहल परिसर में हिन्दुस्तानी अमीरों को बुलाकर कीमती पेंटिंग और ताजमहल की दीवारों में जड़े कीमती पत्थरों को नीलाम कर दिया। इस बात पर कोई फजीहत नहीं हुई। कहते हैं, लार्ड हेस्टिंग की बुरी नजर से ताज नहीं बचा। लार्ड हेस्टिंग ताजमहल की दीवारों में जड़े हीरे, मोतियों को निकालकर इंग्लैंड ले गया। मगर सैकड़ों सालों से बार बार गर्दिश में रहने वाले ताजमहल की चमक और आकर्षण आज भी जस की तस है।

मथुरा के सेठ लख्मी चंद के बारे में कुछ लिखा जाना पाठकों की रोचकता के लिए आवश्यक है। मथुरा के इतिहास में सेठ लख्मी चंद जैसा लक्ष्मी पुत्र दूसरा नहीं हुआ। मथुरा के प्रसिद्ध द्वारिकाधीश का मंदिर का निर्माण इन्हीं सेठ ने कराया था। मंदिर के सामने बने अपने मकान में गदर के वक्त मथुरा के कलेक्टर को सेठ जी ने पनाह देकर बचाया था। इस बदले में सेठ जी को यमुना किनारे विशाल जमीन मिली थी। सेठ जी के वंशज विजय सेठ कांग्रेस के टिकिट पर विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं। ताजमहल की नीलामी के कागजात विजय सेठ ने अपने पूर्वजों की धरोहर मान संभाल कर रखे हैं।